अमरूद भारत का एक
लोकप्रिय फल है। क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से देश में उगाये जाने वाले फलों
में अमरूद का चौथा स्थान है। यह विटामिन-सी का मुख्य स्त्रोत है। यह असिंचित एंव
सिंचित क्षेत्रों में सभी प्रकार की ज़मीन में उगाया जा सकता है।
भूमि एवं जलवायु:
अमरूद को लगभग प्रत्येक प्रकार की मृदा में
उगाया जा सकता है, परन्तु
अच्छे उत्पादन के लिये उपजाऊ बलुई दुमट भूमि अच्छी पाई गई है। इसके उत्पादन हेतु 6 से 7.5 पी.एच. मान की
मृदा उपयुक्त होती है किन्तु 7.5 से अधिक पी.एच. मान की मृदा में उकठा रोग के प्रकोप की
संभावना होती है। अमरूद को उष्ण तथा उपोष्ण जलवायु में सफलता पूर्वक पैदा किया जा
सकता है, परन्तु
अधिक वर्षा वाले क्षेत्र,
अमरूद
की खेती के लिये उपयुक्त नहीं होते हैं। अमरूद की खेती के लिये 15 डिग्री. से. 30 डिग्री से. तापमान
अनुकूल होता है। यह सूखे को भी भली-भाँति सहन कर लेता है। तापमान के अधिक उतार
चढ़ाव, गर्म हवा, कम वर्षा, जलक्रान्ति का
फलोत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव कम पड़ता है। अमरूद को मध्यप्रदेश के सभी जि़लों में
उगाया जा सकता है ।
उन्नत किस्में:
अमरूद की व्यावयायिक स्तर पर उगाई जाने वाली
किस्मों में से इलाहाबाद सफेदा, लखनऊ-49,
चित्तीदार, ग्वालियर-27, एपिल-गुवावा एवं
धारीदार प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त अर्का-मृदुला, श्वेता, ललित एवं पंत-प्रभात किस्में व्यवसायिक उत्पादन हेतु
उपयोग में लाई जा सकती हैं। कोहीर, सफेदा एवं सफेद जाम नामक संकर प्रजातियाँ भी उपयोग में
लाई जा सकती हैं।
इलाहाबाद-सफेदा:
इस किस्म के पेड़ सीधे बढ़ने वाले एवं मध्यम
ऊँचाई वाले होते हैं । फल का आकार मध्यम, गोलाकार एंव औसत वजन 180 ग्राम होता है। फल की सतह चिकनी, छिल्का पीला, गूदा मुलायम, रंग सफेद, सुविकसित और स्वाद
मीठा होता है। बीज बड़े एवं कड़े होते हैं। इस किस्म की भंडारण क्षमता अच्छी होती
है।
लखनऊ-49 (सरदार अमरूद):
इस किस्म के पेड़ मध्यम ऊँचाई के, फलने वाले
तथा अधिक शाखाओं वाले होते हैं। फल मध्यम से बडे़, गोल, अंडाकार, खुरदुरी सतह वाले एवं पीले रंग के होते हैं। गूदा मूलायम, सफेद तथा स्वाद
खटास लिये हुये मीठा होता है। इसकी भंडारण क्षमता अन्य जातियों की तुलना में अच्छी
होती है तथा इसमें उकठा रोग का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है।
चित्तीदार:
यह किस्म सफेदा के समान होती है। परन्तु
फलों की सतह पर लाल रंग के धब्बे पाये जाते हैं। इसके बीज मुलायम तथा छोटे होते
हैं । फल मध्यम, अंडाकार, चिकने एवं हल्के
पीले रंग के होते हैं। गूदा मुलायम, सफेद, सुवास युक्त मीठा होता है।
एप्पल-कलर:
इस किस्म के भी पौधे मध्यम ऊँचाई के एवं
फैले हुये होते हैं। फल गोल एवं चिकने होते हैं। छिल्का गुलाबी या हरे लाल रंग का
होता है। फलों का गूदा मुलायम, सफेद एवं सुवास युक्त होता है। बीज मध्यम आकार के होते हैं
तथा फलों की भंडारण क्षमता मध्यम होती है।
अर्का-मृदुला:
यह जाति इलाहाबाद सफेदा से पौधे चुनाव विधि
के द्वारा विकसित की गई है। फल चिकने, मध्यम आकार, मुलायम बीज, गूदा सफेद एवं मीठा होता है। इस किस्म में प्रचुर मात्रा
में विटामिन-सी पाई जाती है। फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती है।
ललित:
यह किस्म सी.आई.एस.एच. लखनऊ द्वारा विकसित
की गई है। फल मध्यम आकार एवं केशरनुमा आकर्षक पीले रंग के होते हैं। गूदा गुलाबी
रंग का होता है। जिसके कारण यह किस्म संरक्षित पदार्थों को बनाने हेतु उपयुक्त
होती है। यह किस्म इलाहाबाद सफेदा की अपेक्षा 24 प्रतिशत तक अधिक उत्पादन देती है। फल का वजन 250 से 300 ग्राम तक होता है
।
संकर जातियाँ
अमरूद की संकर जातियाँ इस प्रकार हैं:
अर्का-अमूल्या:
यह जाति सीडलेस एंव इलाहाबाद सफेदा के संकरण
से तैयार की गई है। इसके वृक्ष मध्यम आकार के एवं अधिक उत्पादन देने वाले होते
हैं। फल मध्यम आकार (180-200 ग्राम), सफेद रंग, गूदा मीठा, मुलायम एवं बीज
छोटे होते हैं। फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती है।
प्रसारण तथा प्रवर्धन:
अमरूद का प्रसार व्यवसायिक स्तर पर
वानस्पतिक विधियों द्वारा किया जा सकता है अतः अमरूद का बाग लगाने के लिये
वानस्पतिक विधियों द्वारा तैयार पौधों का ही उपयोग करें। इसके व्यावसायिक प्रसार
के लिये पेंच कलिकायन एवं उपरोपण विधि का उपयोग किया जाना उत्तम पाया गया है ।
पादप रोपणः
पादप रोपण द्वारा अमरूद के पौधे लगाने का
मुख्य समय जुलाई से अगस्त तक है लेकिन जिन स्थानों में सिंचाई की सुविधा हो वहाँ
पर पौधे फरवरी-मार्च में भी लगाये जा सकते हैं। बाग लगाने के लिये खेत को समतल
करने के पश्चात् रेखांकन कर पौधे लगाने के लिये निश्चित दूरी पर 60 सें.मी X 60 सें.मी. X 60 सें.मी. आकार के
गड्ढे तैयार करें। इन गड्ढों को 15-20 कि.ग्रा. अच्छी तैयार हुई गोबर की खाद, 500 ग्राम सुपर
फॉस्फेट, 250 ग्राम
पोटाश तथा 100 ग्राम
मिथाईल पैराथियॉन पाऊडर को अच्छी तरह से मिट्टी में मिला कर पौधे लगाने के 15-20 दिन पहले भर दें।
बाग में पौधे लगाने की दूरी मृदा की उर्वरता, किस्म विशेष एवं जलवायु पर निर्भर करती है। इस प्रकार कम
उपजाऊ भूमि में 6 मी. X 6 मी. एवं 6.5 मी. X 6.5 मी. की दूरी पर
पौधे लगायें।
सघन बागवानी/रोपण:
अमरूद की सघन बागवानी के बहुत अच्छे परिणाम
प्राप्त हुये हैं। सघन रोपण में प्रति हैक्टेयर 500 से 5000 पौधे तक लगाये जा सकते हैं तथा समय-समय पर कटाई-छँटाई
करके एवं वृद्धि नियंत्रकों का प्रयोग करके पौधों का आकार छोटा रखा जाता है। इस
तरह की बागवानी से 30 टन से 50 टन तक उत्पादन/है.
लिया जा सकता है। जबकि पारम्परिक विधि से लगाये गये बगीचों का उत्पादन 15-20 टन/है. होता है।
(अ) 3 मीटर
(पंक्ति से पंक्ति) 1.5 मीटर
(पौधे से पौधे) कुल 2222
पौधे/हैक्टेयर।
(ब) 3 मीटर (पंक्ति
से पंक्ति) 3 मीटर
(पौधे से पौधे) कुल 1111
पौधे/हैक्टेयर।
(स) 6 मीटर
(पंक्ति से पंक्ति) 1.5 मीटर
(पौधे से पौधे) कुल 555
पौधे/हैक्टेयर।
खाद एवं उर्वरक:
अमरूद की संतोषजनक वृद्धि एवं उत्पादन के
लिये पर्याप्त मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक है। अमरूद को मुख्य
एवं सूक्ष्म तत्वों की आवश्यकता होती है जिनमें नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश
युक्त तत्वों की काफी मात्रा में आवश्यकता होती है। जस्ते एवं बोरॉन तत्वों की कम मात्रा में अवश्यकता पड़ती है।
अमरूद के कुछ बागों/पौधों में जस्ते की कमी देखी गई है। इसकी कमी से पत्तियों का
आकार छोटा हो जाता है, बहुत सी
छोटी व नुकीली पत्तियाँ गुच्छों के रूप में निकलती हैं और पत्तियों के नसों का रंग
हल्का पीला हो जाता है। बहुत अधिक कमी होने पर पेड़ों की शाखायें ऊपर की तरफ से
सूखना प्रारंभ कर देती हैं । पौधों में फूल कम आते हैं एवं जो फल लगते हैं, फटकर सूख जाते हैं।
बोरॉन की कमी से फलों के अन्दर, बीजों के पास एक
धब्बा बन जाता है जो गूदे की तरफ बढ़ कर गूदे को भूरे या काले रंग का कर देता है
जिससे प्रभावित भाग कड़ा हो जाता है तथा फलों का आकार छोटा हो जाता है। अतः पौधों
की उत्तम वृद्धि एवं उत्पादन के लिये खाद एवं उर्वरकों की निम्नलिखित मात्रा का
प्रयोग करें -
अमरूद के लिये खाद एवं उर्वरक की मात्रा
क्र.
|
पौधों की आयु (वर्षों में)
|
गोबर खाद
(कि.ग्रा.)
|
नत्रजन
(ग्राम)
|
स्फुर
(ग्राम)
|
पोटाश
(ग्राम)
|
1.
|
1
|
10
|
50
|
30
|
50
|
2.
|
2
|
20
|
100
|
60
|
100
|
3.
|
3
|
30
|
150
|
90
|
150
|
4.
|
4
|
40
|
200
|
120
|
200
|
5.
|
5
|
50
|
250
|
150
|
250
|
6.
|
6 वर्ष एवं ऊपर
|
60
|
300
|
180
|
300
|
उपरोक्त खाद एवं उर्वरकों के अतिरिक्त 0.5 प्रतिशत ज़िंक
सल्फेट, 0.4 प्रतिशत
बोरिक ऐसिड एवं 0.4 प्रतिशत
कॉपर सल्फेट का छिड़काव फूल आने के पहले
करने से पौधों की वृद्धि एवं उत्पादन बढ़ाने में सफलता मिलेगी।
जैविक खाद:
अमरूद में नीम की खली 6 कि.ग्रा. प्रति
पौधा डालने से उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ उत्तम गुण वाले फल प्राप्त करें।
गोबर की खाद 40 कि.ग्रा.
अथवा 4 कि.ग्रा.
वर्मी कम्पोस्ट के साथ 100 ग्राम
जैविक खाद जैसे एज़ोस्पाईरिलम, व्ही.ए.एम. एवं पी.एस.एम. के प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि
एवं अच्छी गुणवत्ता वाले फलों का उत्पादन
होगा।
खाद देने का समय एवं विधि:
अमरूद में पोषक तत्व खींचने वाली जड़ें तने
के आस-पास एवं 30 सें.मी.
की गहराई में होती है। इसलिये खाद देते समय इस बात का ध्यान रखें कि खाद, पेड़ के फैलाव में 15-20 सें.मी. की गहराई
में थाला बनाकर दें । गोबर की खाद, स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी
मात्रा जून-जुलाई में तथा शेष नत्रजन की मात्रा सितम्बर-अक्टूबर में वर्षा समाप्त
होने से पहले दें।
सिंचाई:
अमरूद के एक से दो वर्ष पुराने पौधों की
सिंचाई, भारी भूमि
में 10-15 दिन के
अन्तर से तथा हल्की भूमि में 5-7 दिन के अन्तर से करें। गर्मियों में सिंचाई का अंतराल कम
करें व सिंचाई जल्दी-जल्दी करें। दो वर्ष से अधिक उम्र के पौधों को भारी भूमि में 20 दिन तथा हल्की
भूमि में 10 दिन के
अन्तर से थाला बनाकर पानी दें। पुराने एवं फलदार पेड़ों की सिंचाई, वर्षा के बाद 20-25 दिन के अंतर से, जब तक फसल बढ़ती है, करते रहें तथा फसल
तोड़ने के बाद सिंचाई बंद कर दें।
मल्चिंग/बिछावन:
असिंचित क्षेत्रों में वर्षा के जल को अमरूद
के पौधो के चारों ओर थाला बना कर सिंचित करें तथा सितम्बर माह में घास एवं
पत्तियाँ बिछा कर नमी को संरक्षित करें। इससे उत्पादन में वृद्धि होकर उत्तम गुण
वाले फल प्राप्त होंगे ।
कटाई-छँटाईः
प्रारंभिक वर्ष में कटाई-छँटाई का कार्य कर
पौधों को आकार दें। पौधों को साधने के लिये सबसे पहले उन्हें 60-90 सें.मी. तक सीधा
बढ़ने दें। फिर इस ऊँचाई के बाद 15-20 से.मी. के अंतर पर 3-4 शाखायें चुन लें। इसके पश्चात् मुख्य तने के शीर्ष एवं किनारे की शाखाओं की कटाई एवं छँटाई करें
जिससे पेड़ का आकार नियंत्रित रहे। बड़े पेड़ों से सूखी तथा रोगग्रस्त टहनियों को
अलग करें। तने के आस-पास भूमि की सतह से निकलने वाले कल्लों को निकालते रहें।
पुराने पौधे जिनकी उत्पादन क्षमता घट गई हो उनकी मुख्य एवं द्वितीयक शाखाओं की
कटाई करें जिससे नई शाखायें आयेंगी तथा पुराने पौधों की उत्पादन क्षमता बढे़गी।
अन्तरवर्तीय फसलें:
प्रारंभिक दो-तीन वर्षों में बगीचों के
रिक्त स्थानों में रबी में मटर,फ्रैंचबीन, गोभी एवं मेथी, खरीफ में लोबिया, ज्वार, उर्द,
मूँग
एवं सोयाबीन तथा ज़ायद (गर्मी की फसल) में कद्दू वर्गीय सब्ज़ियाँ उगायें।
फलन उपचार (बहार ट्रीटमैंट):
अमरूद में आमतौर पर वर्ष में एक मुख्य
शीतकालीन फसल (हस्त बहार) लेने का सुझाव दिया जाता है जबकि अमरूद में वर्ष में तीन
बार फूल आते हैं । अतः गर्मी एवं वर्षा ऋतु में आने वाले फूलों को सिंचाई रोककर
प्रतिबंधित करना उचित होता है। वर्षाकालीन फसल में कीट एवं रोगों का प्रकोप अधिक
होता है। जबकि सर्दी की फसल के फल उत्तम गुण वाले होते हैं तथा फलों में
विटामिन-सी की मात्रा सबसे अधिक पाई जाती है। वर्षाकालीन फसल को बाज़ार में अच्छा
मूल्य नहीं मिल पाता है। अतः ठंड की फसल लेने की सिफारिश की जाती है। वर्षाकालीन
फसल को रोक कर ठंड की फसल लेने के लिये निम्नलिखित उपाय करें -
1.
अप्रैल से जून तक पौधों को पानी नहीं दें।
पानी रोकने की यह क्रिया 4 वर्ष से
अधिक उम्र के पौधों में ही करें। जिससे बसंत ऋतु में फूल एवं पत्तियाँ गिर जाती
हैं तथा वर्षान्त में फूल काफी संख्या में आते हैं। इस कार्य हेतु स्थानीय अनुभव
अनुसार पानी रोकने की समय सीमा तय करे।
2.
यूरिया का 10 प्रतिशत घोल का छिड़काव एक बार या 100-200 पी.पी.एम नेफ्थलीन
ऐसेटिक एसिड के घोल का छिड़काव 20 दिन के अंतराल से दो बार करें । जिससे अनचाहे फल/पत्तियाँ
गिराये जा सकते हैं ।
रोग
नियंत्रण
यद्यपि अमरूद में कई प्रकार के रोग
बीमारियाँ जैसे उकठा, एन्थ्रेक्नोज़, पौध अंगमारी, तना कैन्कर, फल चित्ती एवं
स्कैब आदि से नुकसान होता है लेकिन सर्वाधिक नुकसान उकठा से होता हैं। अमरूद के
पेड़ को प्रभावित करने वाले रोग एवं उनके नियंत्रण निम्नानुसार है -
उकठा:
यह अमरूद का सबसे विनाशकारी रोग है। इस रोग
के लक्षण सर्वप्रथम वर्षांत में दिखाई देते हैं। रोगी पेड़ों की पत्तियाँ भूरे रंग
की होती हैं एवं पेड़ मुरझा जाता है। प्रभावित पेड़ों की डालियाँ एक-एक करके सूखने
लगती हैं। यह रोग उन क्षेत्रों में अधिक तीव्र गति से फैलता है जहाँ कि मृदा का
पी.एच. मान 7.5 से अधिक
होता है। भूमि की नमी भी रोग को फैलने में सहायक होती है। मृदा आर्द्रता (60-80 प्रतिशत) पर रोग
का प्रकोप बढ़ जाता है। यह रोग लाल लैटराईट एवं एल्यूवियल भूमि में तीव्रता से
फैलता है।
नियंत्रण:
इस रोग से ग्रसित पौधों / पेड़ों के गड्ढों
की मिट्टी को एक ग्राम बेनलेट या कार्बेन्डाज़िम प्रति लीटर पानी में घोल कर (20 लीटर प्रति गड्ढा)
उपचारित करें। भूमि में चूना, जिप्सम तथा कार्बनिक खाद मिलाकर रोग के प्रकोप को कम करें।
अमरूद की लखनऊ-49 किस्म में
यह रोग कम लगता है। अतः इस जाति का प्रयोग करें। चायनीज़ जाति के अमरूद इस रोग से
काफी हद तक प्रतिरोधी पाये गये हैं। अतः इसे मूलवृन्त के रूप में प्रयोग करें।
कीट नियंत्रण
अमरूद में तना छेदक, फल की मक्खी, मिली बग, स्केल कीट आदि से
नुकसान होता है। अमरूद के पेड़ को प्रभावित करने वाले कीट एवं उनके नियंत्रण
निम्नानुसार हैं -
छाल भक्षक इल्ली:
अमरूद में सबसे ज्यादा नुकसान इस इल्ली के
द्वारा होता है, जो कि
अमरूद के अतिरिक्त आम, बेर, अनार तथा नींबू
जाति के फलों पर भी आक्रमण करती है। इस कीट की इल्ली तने का छाल खाती है तथा तने
में छेद कर देती है। छाल खाने के बाद एक प्रकार का काला अवशेष छोड़ती है जो कि
प्रभावित हिस्सों पर चिपका रहता है।
नियंत्रण:
इसकी रोकथाम के लिये छिद्रों में मिट्टी के
तेल या पेट्रोल या न्यूवॉन से भीगी रूई
छेद में डालें एवं ऊपर से छेद के मुँह को गीली मिट्टी से बन्द कर दें।
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