भारतवर्ष
का सर्वसुलभ एवं लगभग प्रत्येक प्रान्त में सरलता से उगाया जा सकने वाला फल आम है।
इसके स्वाद, सुगन्ध एवं
रंग-रूप के कारण इसे फलों का राजा कहा जाता है। आम के पके हुये फल स्वादिष्ट, पौष्टिक एवं
स्वास्थ्यवर्धक होते हैं। ताजे़ पके फल के उपयोग के अतिरिक्त आम के फलों से अनेक
परिरक्षित पदार्थ बनाये जाते हैं, जैसे - कच्चे फलों से अचार, अमचूर तथा पके फलो से स्क्वैश, जूस, शर्बत, जैम, अमावट आदि। अधिकतम
आय के लिये आम के बागीचे वैज्ञानिक तकनीकी के प्रयोग से करें.
मृदा एवं जलवायु:
आम की फसल की
बागवानी के लिये अच्छी जलधारण क्षमता वाली गहरी, बलुई, दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। गहरी काली मिट्टी इसके
लिये अनुपयुक्त होती है । भूमि का पी. एच. मान 5.5 से 7.5 होना चाहिये तथा गहराई कम से कम 1 से 1.5 मीटर होनी चाहिये।
आम उष्ण जलवायु
वाला पौधा है। यह सरलतापूर्वक समुद्र सतह से 1100 मी. तक की ऊँचाई पर उगाया जा सकता है। आम के लिये 24 से.ग्रे. से 37 से.ग्रे. का
तापमान अच्छा होता है। फूल आने के समय अधिक आर्दता, वर्षा एवं पाला, आम के लिये उपयुक्त
नहीं है। फल वृद्धि के समय अधिक तापक्रम फल की गुणवत्ता के लिये अच्छा होता है।
उन्नत किस्में:
आम की लगभग 1000 से अधिक किस्में
उगाई जाती हैं किन्तु व्यापारिक दृष्टिकोण से 40-50 किस्में उपयुक्त है। कुछ प्रमुख किस्में इस प्रकार हैं-
1. आम्रपाली (दशहरी - नीलम):
यह एक संकर किस्म
है जिसके पौधे बौने होते हैं एवं यह किस्म सघन बागवानी के लिये उपयुक्त है। इसके
फल, आकार में
छोटे होते हैं परन्तु प्रतिवर्ष फलते हैं। यह देर से पकने वाली किस्म है जिसमें फल
जून के अंत में पकते हैं। सघन बागवानी में इससे 200 - 250 क्विंटल/हैक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
2. मल्लिका (नीलम - दशहरी):
यह एक संकर किस्म
है जिसके फल बहुत बड़े (औसत वजन 500 ग्राम) होते हैं। फल का रंग गुलाबी-पीला, गुठली गूदेदार, मीठा एवं स्वादिष्ट
होता है। यह नियमित रूप से फलने वाली किस्म है। इस किस्म की भंडारण क्षमता अधिक
होती है यह किस्म खाने एवं प्रसंस्करण हेतु उपयुक्त है। एक संपूर्ण विकसित वृक्ष
से औसतन 150-200 किलो
ग्राम फल प्राप्त होते हैं।
3. दशहरी:
इस किस्म का
उत्पत्ति स्थान लखनऊ है एवं यह उत्तर भारत की प्रमुख एवं स्वाद हेतु लोकप्रिय
किस्म है। यह मध्य जून से जुलाई तक पकने वाली किस्म है। वृक्ष मध्यम ऊँचाई का
फैलने वाला तथा शीर्ष गोलाकार होता है। फल, मध्यम आकार के भार 125-250 ग्राम, रंग पीला, छिल्का पतला, रेशा रहित गूदा एवं गुठली छोटी होती है। फल अच्छी भंडारण
क्षमता वाले होते हैं।
4. लंगड़ाः
इसकी उत्पत्ति
बनारस के समीप, गाँव में
हुई । यह किस्म अंतिम मई से जुलाई के अंत तक फल देती है। वृक्ष फैलने वाली प्रकृति
का एवं शीर्ष गोलाकार होता है। फल मध्यम आकार के अंडाकार, रंग हरा, रेशा रहित गूदा एवं
छोटी गुठली होती है। फलों की भंडारण क्षमता कम होती है। इसका औसत उत्पादन 150-200 कि.ग्रा. प्रति
वृक्ष तक होता है।
यह मध्यम अवधि में
पकने वाली किस्म है जिसका उत्पत्ति स्थान रीवा है। फल मध्यम आकार का, वजन 200-250 ग्राम, तिरछा, अंडाकार, रंग पीला, सुगंधित एवं
स्वादिष्ट होता है। यह बंधा रोग (मैंगो मालफ़ॉर्मेशन) के लिये अत्याधिक संवदेनशील
है।
6. गाजरिया:
यह बैतूल की प्रमुख किस्म है। फल मध्यम से
बड़ा, आयताकार, आधार थोड़ा चपटा, शीर्ष गोलाकार, रंग पकने पर
पीला-हरा, छिल्के पर
सफेद धब्बे, छिल्का
मध्यम से मोटा, गूदा रसदार
एवं बहुत मीठा होता है। इसमें अनन्नास जैसी सुगंध होती है तथा गूदा गाजर के समान
होने के कारण इसे गाजरिया कहते हैं । पकने का समय मध्य मई से अंतिम जून तक होता है।
7. दहियड़:
यह भोपाल की रसदार
किस्म है जिसका फल मध्यम आकार, तिरछा,
अंडाकार, शीर्ष गोलाकार
चैड़ा, रंग पकने
पर पीला हरा छिल्का मोटा,
गूदा
रसदार, मीठा, हल्का पीला रेशा
रहित होता है। दही में शक्कर मिश्रित सुगंध के कारण इसे दहियड़ कहते हैं।
8. बॉम्बेग्रीन:
यह जल्दी पकने वाली
किस्म है, जिसके फल
मई के तीसरे सप्ताह में पक कर तैयार होते हैं। इस किस्म के वृक्ष अधिक शाखायुक्त
एवं पत्तियाँ पतली होती हैं। फलों का आकार मध्यम, पकने पर हरे रंग से हरा-पीला, फलों में गूदे की
मात्रा अधिक तथा स्वाद एवं मिठास अच्छी होती है।
9. अलफैंज़ो:
यह रत्नागिरी
(महाराष्ट्र) की लोकप्रिय किस्म है। फलों का आकार मध्यम, (वजन 250 ग्राम), गूदा नरम, रेशा रहित, रंग नारंगी, स्वाद खट्टा मीठा
होता है। इसमें स्पंजी ऊतक नामक विकृति पायी जाती है। इसकी भंडारण क्षमता अच्छी
होती है तथा निर्यात के लिये उपयुक्त है।
पौध रोपण:
आम के पौधों को 10 X 10 मीटर की दूरी पर लगायें
। किंतु सघन बागवानी में इसे 2.5 से 4 मीटर की
दूरी पर लगायें। पौधा लगाने के पूर्व खेत में रेखांकन कर पौधों का स्थान सुनिश्चित कर लें।
पौधे लगाने के लिये 1 X 1 X 1 मीटर आकार का गड्ढ़ा खोदें। वर्षा प्रारंभ होने के
पूर्व, जून माह
में 20 - 30 कि.ग्रा.
गोबर की खाद, 2 कि.ग्रा.
नीम की खली, 1 कि.ग्रा.
हड्डी का चूरा अथवा सिंगल सुपर फॉस्फेट एवं 100 ग्राम. मिथाईल पैरामिथियॉन की डस्ट (10 %) या 20 ग्राम थीमेट 10-जी को खेत की ऊपरी
सतह की मिट्टी के साथ मिला कर गड्ढों को अच्छी तरह भर दें। दो-तीन बार बारिश होने
के बाद जब मिट्टी दब जाये तब पूर्व चिन्हित स्थान पर खुरपी की सहायता से पौधे की
पिंडी के आकार की जगह बनाकर पौधा लगायें। पौधा लगाने के बाद आस-पास की मिट्टी को
अच्छी तरह दबाकर एक थाला बना दें एवं हल्की सिंचाई करें।
पौधे की देखरेख:
आम के पौधे की
देखरेख उसके समुचित फलन एवं पूर्ण उत्पादन हेतु आवश्यक है। पौधों को लगाने के बाद
पौधों के पूर्ण रूप से स्थापित होने तक, सिंचाई करें। प्रारंभिक दो तीन वर्षों तक लू से बचाने के
लिये सिंचाई करें। ज़मीन से 80 से.मी. की ऊँचाई तक की शाखाओं को निकाल दें, जिससे मुख्य तने का
समुचित विकास हो सके। ग्राफ्टिंग के स्थान के नीचे से कोई शाखा नहीं निकलनी
चाहिये। ऊपर की 3-4 शाखाओं को
बढ़ने दें। बड़े छत्रक वाले घने वृक्षों में, न फलने वाली बीच की शाखाओं को काट दें। फलों को तोड़ने
के बाद मंजर के साथ-साथ 2-3 से.मी.
टहनियों को काट दें ताकि स्वस्थ्य शाखायें निकलें। अगले मौसम में अच्छा फलन होगा।
फल वृक्षों का पोषण:
आम के पौधों में
खाद एवं उर्वरक निम्नानुसार दें :
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सिंगल सुपर फॉस्फेट (ग्रा.)
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1.
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3.
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नोट: उपरोक्त खाद एवं उर्वरक की मात्रा भूमि परीक्षण के पश्चात्
परिणाम के अनुसार परिवर्तित करें।
सिंचाई एवं जल ग्रहण:
आम का पौधा जब तक
फलन में नहीं आता तब तक पौधों की उचित बढ़वार हेतु सर्दी के मौसम में 12-15 दिन एंव गर्मी के
मौसम में 8-10 दिनों के
अंतराल पर सिंचाई करें। मंजर या बौर आने के दो माह पूर्व से फल बनने तक पानी नहीं
दें। यदि आम के साथ कोई अन्य फसल भी उगा रहे हैं तो सिंचाई आम के पौधों की
आवश्यकतानुसार ही करें या फिर ऐसी फसल का चयन करें जिसमें आम की सिंचाई के समय सिंचाई की आवश्यकता न हो।
पौधों में फलन के समय पानी की अधिक आवश्यकता होती है, अतः मटर के दाने के
आकार के आम के फल से तुड़ाई तक सिंचाई करने
से फलन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है । सिंचाई हेतु टपक सिंचाई विधि (ड्रिप
इरीगेशन) अपनायें।
पूरक पौधे एवं अंतराशस्य:
आम के वृक्ष को
पूर्णरूप से तैयार होने में लगभग 10-12 वर्ष का समय लगता है। अतः प्रारंभिक वर्षों में आम के
पौधों के बीच, खाली पड़ी
भूमि में अन्य फलदार पौधे,
दलहनी
फसल अथवा सब्जि़याँ लगायें एवं अतिरिक्त लाभ लें तथा भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ायें
। पूरक पौधों के रूप में अमरूद, नींबू,
अनार, पपीता, सीताफल (शरीफा) आदि
फल के पौधे आम के पौधों के बीच लगायें । इस प्रकार एक हैक्टेयर भूमि में आम के 100 पौधे लगाये जा
सकते हैं। अंतराशस्य के रूप में फ्रेंचबीन, चना, अरहर,
मूँग, मेथी, भिंडी आदि फसलंे
लगायें। थाले की भली भाँति गुड़ाई करें एवं समय पर खरपतवारों को नष्ट करें। पौधों
के मध्य उत्पन्न खरपतवारों को ग्लाईफोसैट या अन्य खरपतवारनाशक रसायनों के प्रयोग
करके समय-समय पर नष्ट करें।
पुष्पन एवं फलन:
वानस्पतिक विधि से
प्रवर्धित पौधों में 3-4 वर्षों
में फूल आना प्रारंभ हो जाते हैं। आम में परागण कीटों द्वारा होता है। अतः फूल आने
के समय कीटनाशक रसायनों का प्रयोग न करें अन्यथा फल उत्पादन प्रभावित होगा। पौधें
में आयु के साथ फलन में वृद्धि होती है। साधारणतः 15-20 वर्ष के पौधे से अधिकतम फल प्राप्त होते
हैं। औसत आकार के फल प्राप्त करने के लिये लगभग 30-40 प्रतिशत फलों को तोड़ दें।
पौध संरक्षण
पौध संरक्षण के
अंतर्गत कीट तथा रोग नियंत्रण कर पौध सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है। यह इस प्रकार हैं –
कीट नियंत्रण
आम का फुदका (मैंगो हॉपर):
इस कीड़े का प्रकोप
फरवरी एवं मार्च महीने में होता है। वयस्क कीड़े हल्के भूरे रंग के होते हैं जिनके
शरीर पर काली एंव पीली रेखायें होती हैं, सिर बड़ा तथा शरीर पीछे की ओर नुकीला होता है। कीट के
शिशु की सफेद तथा लाल आँख होती है जो बाद में पीले रंग की हो जाती हैं। शिशु तथा
वयस्क दोनों फूलों एवं पत्तियों का रस चूसते है। परिणामस्वरूप फूल एवं फल झड़ने लग
जाते हैं। कीट, चिपचिपा रस
उत्सर्जित करें जो पत्तियों पर फैल जाता है एवं काली फफूँदी उत्पन्न हो जाती है।
जिससेे पौधे का प्रकाश संश्लेषण कम हो जाता है तथा पौधे कमज़ोर हो जाते हैं।
नियंत्रण:
इस कीट की रोकथाम
के लिये फॉस्फोमिडॉन का 0.04 प्रतिशत
घोल का छिड़काव करें।
आम का फुंगा (मिली बग):
कीट के बदन का रंग
लाल, सिर, पंख, टाँगे तथा ऐंटिनी
काले होते हैं। सिर छोटा,
काला, बिना मुखांग वाला
होता है। मादा कीट का शरीर कोमल, कुछ लालिमा लिये हुये हल्का भूरा होता है। जो मोम से ढक जाने
के कारण सफेद दिखाई देता है। उदर में दस खंड स्पष्ट दिखाई देते हैं। कीट नवम्बर
माह में सर्वप्रथम जड़ों के पास हज़ारों की संख्या में पाये जाते हैं। फरवरी माह
में कीट के निम्फ नई टहनियों, बौर की मुजरियों से रस चूसते हैं जिससे फूल एवं फल झड़ते हैं।
नियंत्रण:
कीट के नियंत्रण
हेतु दिसम्बर-जनवरी माह में तने के चारों ओर गुड़ाई तथा क्लोरपायरीफाॅस या मिथाईल पैराथियॉन
के 200 ग्राम चूर्ण का भुरकाव करें अथवा पाॅलीथिन की चादर से
तने पर 20 से.मी. की
पट्टी एवं ग्रीस लगाने से भी कीट का नियंत्रण किया जा सकता है।
दीमक:
दीमक के प्रकोप से
तने पर मिट्टी की एक पर्त चढ़ जाती है। कीट, पौधे की छाल एवं अन्य भागों को खाता है।
नियंत्रण:
इसके नियंत्रण हेतु
थीमेट (10 जी) 25 कि.ग्रा. प्रति
हैक्टेयर या मिथाईल पैराथियॉन (10 प्रतिशत) 25 कि.ग्रा. प्रति
हैक्टेयर भूमि में मिला कर इसका नियंत्रण करें। नियमित सिंचाई भी इसके नियंत्रण
में महत्वपूर्ण योगदान देती है।
रोग नियंत्रण
कालव्रण (एन्थे्रक्नोज़):
इस बीमारी का
प्रकोप नई पत्तियों, टहनियों, फूलों और फलों पर
होता है। शुरू में छोटे भूरे धब्बे बनते हैं और बाद में आपस में मिलकर बड़े-बड़े
गोल भूरे धब्बे बनाते हैं। भंडारण के समय फलों पर गोल, भूरे धब्बे पड़
जाते हैं जो बाद में काले भूरे रंग के हो जाते हैं।
नियंत्रण:
मानेब 2 ग्राम/लीटर पानी
में घोलकर छिड़काव करें। ब्लाईटॉक्स 3 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से भी रोग पर काबू पा सकते
हैं। फलों को बेनलेट या कार्बैंडाज़िम के घोल में डुबाकर भंडारण करने से भी रोग को रोका जा सकता
है।
बंचीटाप (मैंगो मैलफार्मेशन):
इस रोग में मंजरी
एक गुच्छे के रूप में परिवर्तित हो जाती है जो अधिक कड़े एवं हरे होते हैं इसमें
सिर्फ नर फूल ही होते हैं। जिसके कारण इसमें फल नहीं लगते। नियंत्रण हेतु अक्टूबर
के प्रथम सप्ताह में गुच्छों की कटाई कर प्लैनोफिक्स 200 पी.पी.एम. का
छिड़काव करें।
कोलसी (सूटी
मोल्ड):
यह रोग कीड़ो
द्वारा निकाले हुये चिपचिपे मीठे पदार्थ के कारण फैलता जा रहा है। इस चिपचिपे
पदार्थ पर काली फफूँद की पपड़ी सी बन जाती है। यह काली फफूँद टहनियों को भी ढक
लेता है, जिससे
प्रकाश संश्लेषण की क्रिया रूकने के कारण पौधों का विकास रूक जाता है।
नियंत्रण हेतु वेटासुल (0.2 प्रतिशत), मैटासिड (0.1 प्रतिशत), गम-एकेसिया (0.3 प्रतिशत) के
छिड़काव कर रोग को प्रभावी ढंग से रोकें। डायमिथियोएट अथवा मिथाईल डेमेटॉन कीटनाशी
का 1.5 मि.ली.
प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें जिससे भुनगे, हॉपर और अन्य कीट नियंत्रित हो जायें। काली
पपड़ी हटाने के लिये 2 ग्राम
घुलनशील स्टार्च प्रति लीटर पानी में घोल कर पत्तियों पर छिड़काव करें।
तुड़ाई एंव भंडारण:
आम किस्म के अनुसार, 85-105 दिनांे में पकते हैं। फलों को काटने पर गूदे का रंग हल्का
पीला हो तो फल को पका हुआ समझें। आम के पके फलों की तुड़ाई सुबह के समय इस प्रकार करें ताकि फलों को चोट
एवं खरोंच न आये, चोटिल फलों
पर फफूँद के प्रकोप से सड़न पैदा हो जाती है। जिससे आर्थिक हानि होती है फलों को तुड़ाई
के बाद छायादार स्थानों में रखें। अगर
प्रशीतन की सुविधा हो तो इन फलों को प्रशीतित करें जिससे फलों की भंडारण क्षमता
बढ़ जाती है। यह सुविधा उपलब्ध न होने पर फलों को ठंडे पानी में धोकर हवादार एवं
छाया वाले स्थान में सुखा लें।
आम के फलों का
श्रेणीकरण फलों के आकार, किस्म, वजन, रंग व परिपक्वता के
आधार पर करें। फलों को सुरक्षित भंडारण, परिवहन तथा विपणन के लिये पैक करना अति आवश्यक है। भारत
में अधिकतर फल बाँस, अरहर, शहतूत, फालसा आदि की
लकडि़यों की बनी टोकरियों में पैक किये जाते हैं। आजकल कार्डबोर्ड एंव फाईबर के भी
बक्से पैकिंग के लिये उपलब्ध हैं। पेटीबंदी के लिये फलों के बीच में सूखी मुलायम
घास, पेड़ के
पत्ते, कागज़ की
कतरन, धान का
पुआल आदि का अस्तर के रूप में प्रयोग करें।
फलों की लम्बे समय
तक उपलब्धता एवं गुणवत्ता बनाये रखने के लिये सुरक्षित भंडारण आवश्यक है। साधारणतः
पके हरे आम को कमरे के तापमान पर किस्मानुसार 4-8 दिन तक सुरक्षित भंडारण किया जा सकता है। भंडारण की
निम्नलिखित विधियाँ हैं:
1.
पूर्ण शीतलन -आम के फलों को ठंडे पानी में 30 मिनट तक रखें
जिससे फलों का तापमान कम हो जाये एवं भंडारण अवधि बढ़ जाये।
2.
शीतलन -फलों पर 2 प्रतिशत कैल्शियम
नाईटेªट के घोल
का छिड़काव करें ताकि फलों की भंडारण क्षमता बढ़ जाये। यह छिड़काव, तुड़ाई पूर्व 7 दिन के अंतराल से तीन बार करें।
3.
शीत भंडारण -इस विधि में 7 डिग्री सेल्सियस
से 9.5 डिग्री
सेल्सियस तापमान तथा 85
-90 प्रतिशत सापेक्ष आर्द्रता पर अलग-अलग किस्मों को 3 सप्ताह से चार
सप्ताह तक भंडारित किया जा सकता है। कच्चे आम के फलों को कम तापमान (7 डिग्री सेल्सियस)
पर अधिक दिनों तक रखने से फल ठीक से पक नहीं पाते हैं किंतु पूर्ण रूप से पके फलों
को 8-10 डिग्री
सेल्सियस पर 2-3 सप्ताह तक
सुरक्षित भंडारित किया जा सकता है।
विपणन:
आम के बाग
सामान्यतः अधिकृत ठेकेदारों को नीलाम कर दिये जाते हैं, जिसके कारण बाग की
देखभाल ठीक तरह से नहीं हो पाती है एवं फलों की तुड़ाई अधपकी अथवा बिना पकी अवस्था
में करने के कारण गुणवत्ता भी प्रभावित होती है अतः यदि आम का विपणन सहकारी समितियों
के माध्यम से किया जाये तो आम उत्पादकों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य मिल सकता
है।